गोकुल में छड़ीमार होली: भगवान कृष्ण के नाम पर रंगबाज़ी का उत्सव

गोकुल में छड़ीमार होली

भारत में छड़ीमार होली विश्वपटल  पर विख्यात है देश- विदेश से यहाँ पर्यटक गोकुल में छड़ीमार  होली का आनंद लेने आते है। पौराणिक काल से गोकुल में मान्यता है की भगवान श्री कृष्ण यहा निवास करते है और होली के त्योहार के रंग में रंग जाते है।  इस बार छड़ीमार होली 21 मार्च को मनाई जाएगी।
गोरतलब है की रंगभरी एकादशी से समूचे ब्रज मंडल में होली का रंग चढ़ना शुरू हो रहा है। ब्रज में होली की धूम चारों ओर है। हर कोई रंगों की मस्ती में मस्त है। फाल्गुन शुक्ल पक्ष द्वादशी को गोकुल में प्रसिद्ध छड़ीमार होली खेली जाने वाली है। यहां गोपियों के हाथ में लट्ठ नहीं, बल्कि छड़ी होती है और होली खेलने आए कान्हाओं पर गोपियां छड़ी बरसाती हैं।  यहां लाठी की जगह छड़ी से होली खेली जाती है।
मान्यता है कि बालकृष्ण को लाठी से कहीं चोट ना लग जाए, इसलिए यहां लाठी की जगह छड़ी से होली खेलने की परंपरा है। तभी से गोकुल में छड़ीमार होली खेली जाती है। गोकुल में छड़ीमार होली का उत्सव एक परंपरा बन चुका है, जो सदियों से जारी है। ये होली खुद में अनोखी विरासत को समेटे हुए है। आज भी गोकुल की छड़ीमार होली में श्रीकृष्ण के बालरूप की झलक दिखती है। गोकुल बालकृष्ण की नगरी है।बालगोपाल का यहां बचपन गुजरा है।  इसलिए गोकुल में उनके बालस्वरूप को ज़्यादा महत्व दिया जाता है। गोकुल के छैल छबीलों को गोपियां खूब छका देती हैं। जैसे कि कान्हा के द्वारा माखन चोरी कर खाना,मटकी फोड़ना आदि कई किस्से भगवान के बाल्य अवस्था को बतलाते है और इनका बखान किया जाता है ।वही इस उत्सव में  कान्हा की पालकी और पीछे सजी-धजी गोपियां हाथों में छड़ी लेकर चलती हैं। दरअसल, कृष्ण-बलराम ने यहां ग्वालों और गोपियों के साथ होली खेली थी। कान्हा के रूप को याद करते हुए यहां छड़ीमार होली खेली जाती है। गोकुल में होली द्वादशी से शुरू होकर धुलेंडी तक चलती है।
Chhadi Mar Holi in Gokul
कहा जाता है कि इस दौरान कृष्ण भगवान सिर्फ़ एक दिन यानी द्वादशी को बाहर निकलकर होली खेला करते थे। गोकुल में बाक़ी के दिन होली मंदिर में ही खेली जाती है। सैकड़ों साल से चली आ रही इस होली की इस परंपरा की सबसे खास बात ये है कि जब भगवान बगीचे में बैठकर भक्तों के साथ होली खेलते हैं, तो हुरियारिन भगवान और श्रद्धालुओं के साथ छड़ी से होली खेलती हैं।  इस दौरान पूरे ब्रज में सिर्फ़ इसी जगह ही लट्ठ की बजाय छड़ीमार होली खेली जाती है।

 भगवान कृष्ण ढोल नगाड़ों की ताल पर थिरकते है।

गोकुल में कई कृष्ण बनते है जिनकी झांकी भी निकाली जाती है।  ढोल नगाड़ों की थाप पर सब थिरकते हुए नंद नंदन को लेकर चलते हैं। कान्हा ने जहां अपने बचपन की लीलाएं की उसी गांव में इस दिव्य होली में रंगने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु यहां आते हैं. रंगों की बौछार से श्रद्धालुओं का रोम-रोम गोकुल की होली के रंग में रंग जाता है।
छड़ीमार होली गोकुल के मुरलीधर घाट से शुरू होती है।  माना जाता है कि इसी घाट पर कान्हा ने सबसे पहले अपने अधरों पर मुरली रखी थी। पहले यहां होरंगा खेला जाता है यानि गोपियां कान्हा बने होरियारों पर प्यार से छड़ियां बरसाती हैं। इसके बाद रंग-गुलाल से होली खेलने का दौर शुरू होता है। यहां एक बार आने वाले भक्त हर साल यहां खींचे चले आते हैं।  कहा जाता है कि ब्रज की होली में एक बार रंग जाने वाले पर कभी कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ता है। यहां के प्यार भरे गुलाल में श्री कृष्ण का आशीर्वाद समाया होता है। छड़ीमार होली के हुड़दंग के बीच भजन लोकगीत भी चलता है।आस्था और रंगों के इस अनोखे मिलन के साक्षी बनने के लिए देश और दुनिया के कोन-कोने से श्रद्धालु हर साल यहां पहुंचते हैं, क्योंकि ब्रज के इस रंगोत्सव में रमने का मौका कोई गंवाना नहीं चाहता है।
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